वांछित मन्त्र चुनें

प्र॒यु॒ञ्ज॒ती दि॒व ए॑ति ब्रुवा॒णा म॒ही मा॒ता दु॑हि॒तुर्बो॒धय॑न्ती। आ॒विवा॑सन्ती युव॒तिर्म॑नी॒षा पि॒तृभ्य॒ आ सद॑ने॒ जोहु॑वाना ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prayuñjatī diva eti bruvāṇā mahī mātā duhitur bodhayantī | āvivāsantī yuvatir manīṣā pitṛbhya ā sadane johuvānā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒ऽयु॒ञ्ज॒ती। दि॒वः। ए॒ति॒। ब्रु॒वा॒णा। म॒ही। मा॒ता। दु॒हि॒तुः। बो॒धय॑न्ती। आ॒ऽविवा॑सन्ती। यु॒व॒तिः। म॒नी॒षा। पि॒तृऽभ्यः॑। आ। सद॑ने। जोहु॑वाना ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:47» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले सैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में स्त्री पुरुषों के गुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (दिवः) प्रकाश से प्रातःकाल के सदृश (ब्रुवाणा) उपदेश देती (प्रयुञ्जती) उत्तम कर्म्म में अच्छे प्रकार योग करती (दुहितुः) कन्या का (बोधयन्ती) बोध देती और (मही) आदर करने योग्य (आविवासन्ती) सब प्रकार से सेवती हुई (सदने) गृह में (जोहुवाना) अत्यन्त प्रशंसा को प्राप्त (युवतिः) युवा अवस्था में विद्याओं को पढ़कर विवाह जिसने किया वह (माता) आदर करनेवाली माता (मनीषा) बुद्धि से (पितृभ्यः) पालन करनेवालों से शिक्षा को प्राप्त गृहाश्रम को (आ) सब प्रकार से (एति) जाती वा प्राप्त होती है, वह मङ्गलकारिणी होती है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो माता पाँचवें वर्ष के प्रारम्भ होने तक सन्तानों को बोध देकर पाँचवें वर्ष में पिता को सौंपती है और पिता भी तीन वर्ष पर्य्यन्त शिक्षा देकर आचार्य्य को पुत्रों को और आचार्य्य की स्त्री को कन्याओं को ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण के लिये सौंपता है और वे आचार्यादि भी नियत समयपर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य को समाप्त करा के और विद्याओं को प्राप्त करा के तथा व्यवहार की शिक्षा देकर गृहाश्रम में प्रविष्ट कराते हैं, वे आचार्य और आचार्य्या कुल के भूषक और शोभाकारक होते हैं ॥१॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ स्त्रीपुरुषगुणानाह ॥

अन्वय:

या दिव उषा इव ब्रुवाणा प्रयुञ्जती दुहितुर्बोधयन्ती मही आविवासन्ती सदने जोहुवाना युवतिर्माता मनीषा पितृभ्यः प्राप्तशिक्षा गृहाश्रममैति सा मङ्गलकारिणी भवति ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रयुञ्जती) प्रयोगं कुर्वन्ती (दिवः) प्रकाशात् (एति) गच्छति प्राप्नोति वा (ब्रुवाणा) उपदिशन्ती (मही) पूजनीया (माता) मान्यकारिणी जननी (दुहितुः) कन्यायाः (बोधयन्ती) (आविवासन्ती) समन्तात् सेवमाना (युवतिः) युवावस्थायां विद्या अधीत्य कृतविवाहा (मनीषा) प्रज्ञया (पितृभ्यः) पालकेभ्यः (आ) (सदने) गृहे (जोहुवाना) भृशं प्राप्तप्रशंसा ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । या माता आपञ्चमाद्वर्षात् सन्तानान् बोधयित्वा पञ्चमे वर्षे पित्रे समर्पयति पितापि वर्षत्रयं शिक्षित्वाऽऽचार्याय पुत्रानाचार्यायै कन्या ब्रह्मचर्य्येण विद्याग्रहणाय समर्पयति तेऽपि यथाकालं ब्रह्मचर्यं समापयित्वा विद्याः प्रापय्य व्यवहारशिक्षां दत्त्वा समावर्त्तयन्ति ते ताश्च कुलस्य भूषका अलङ्कर्त्र्यश्च स्युः ॥१॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात स्त्री-पुरुष इत्यादींच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माता पाच वर्षांपर्यंत सुसंस्कार करून पाचव्या वर्षात संतानाना पित्याच्या अधीन करते व पिता तीन वर्षांपर्यंत शिकवून मुलांना आचार्याकडे पाठवितो व आचार्याच्या पत्नीकडे मुलींना ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याग्रहणासाठी सोपवितो व आचार्यही नियतवेळी ब्रह्मचर्य समाप्त करून विद्या प्राप्त करवून व्यवहार विद्या शिकवून गृहस्थाश्रमात प्रविष्ट करवितात. ते आचार्य कुलाचे भूषक व शोभादायक असतात. ॥ १ ॥